ऐसे में महाराणा राजसिंह ने एक बादशाही फौज से लड़ने के लिए सलूम्बर रावत रतनसिंह चुण्डावत को तुरंत बुलावा भिजवाया। कुछ इतिहासकारों ने यह घटना चारूमति विवाह प्रकरण के दौरान होना बताई है, जो कि सही नहीं है, क्योंकि उस समय मुगल-मेवाड़ युद्ध हुआ ही नहीं था।
इस संबंध में पहले ही चारुमती प्रकरण में लिखा जा चुका है कि महाराणा राजसिंह ने औरंगज़ेब को स्वयं पत्र लिखकर कहा था कि किशनगढ़ में हुए विवाह में कोई फसाद नहीं हुआ। इसलिए निश्चित तौर पर यह घटना 1680 ई. की है।
रावत रतनसिंह चुण्डावत का विवाह कुछ दिन पूर्व ही बूंदी की हाड़ी राजकुमारी इंद्र कंवर से हुआ था। कहीं कहीं इनका नाम सहल कंवर भी लिखा है। रावत रतनसिंह इस विवाह के बाद प्रेम को कर्तव्य से अधिक महत्व देने लगे।
महाराणा राजसिंह का संदेश लेकर एक दूत सलूम्बर के महलों में आया और समाचार सुनाया कि औरंगज़ेब के सेनापति हसन अली खां ने आक्रमण कर दिया है व आप सलूम्बर की फौज लेकर उनसे लड़ने जाओ। रावत रतनसिंह का सीधा सामना औरंगज़ेब से नहीं, बल्कि हसन अली खां से हुआ था।
महाराणा का आदेश होने की खातिर रावत रतनसिंह जैसे-तैसे युद्ध की तैयारी कर महलों से बाहर निकले, कि तभी उनको अपनी रानी का विचार आया और एक सेवक से कहा कि “जाओ और हाड़ी रानी से कोई निशानी लेकर आओ, ताकि युद्धभूमि में मुझे उनकी याद आए तो उसे देख लूँ”
सेवक ने महल में जाकर दासी को यह सूचना दी और दासी ने सारा हाल रानी इंद्र कंवर से कह सुनाया। हाड़ी रानी इंद्र कंवर ने सोचा कि रावत जी युद्धभूमि में भी मेरे बारे में ही सोचते रहेंगे और कर्तव्य से मुंह मोड़ लेंगे।
रानी ने दासी से कहा कि “ये निशानी जब रावत जी को दो तब उनसे कहना कि इस संसार में पत्नी प्रेम से बढ़कर मातृभूमि है”। इतना कहकर हाड़ी रानी ने उसी समय तलवार निकाली व अपना शीश काटकर निशानी के तौर पर थाल में रख दिया और एक ऐसा बलिदान दिया जिसका संसार भर में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है।
जब रावत रतनसिंह ने थाल में सजा अपनी प्रिय रानी का कटा शीश देखा तो देखते रह गए और कहने लगे कि “रानी ने तो अपना कर्तव्य निभा दिया और हमें भी कर्तव्य का पाठ पढ़ा गई, सौगंध एकलिंग नाथ की विजय पाऊं या वीरगति पर हारकर महलों में नहीं आऊंगा”
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